Mau Ka History - मऊ का इतिहास, संस्कृति और करघा परंपरा
⭐ मऊ ज़िला – एक शहर, एक करघा और चार पीढ़ियों की जीवनगाथा
पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित मऊ ज़िला, जिसे आज मऊ-नथनी और कभी “मऊनाथ भंजन” कहा जाता था, केवल नक्शे पर अंकित एक जगह भर नहीं था। यह वह धरती थी जहाँ करघों की थप-थपाहट से सुबहें खुलती थीं, और इत्र की खुशबू से शामें महक उठती थीं। यह वह मिट्टी थी जहाँ नदी गंगा-गोमती के तटों पर नई सभ्यताएँ पनपती थीं, और जहाँ पीढ़ियों से बुनकर परिवार धागों में सपने बुनते चले आते थे।
इसी मऊ में रहता था—
“यूसुफ अंसारी”,
करघा चलाने वाला एक साधारण लेकिन दिल से बहुत बड़ा इंसान। उसके घर में चार पीढ़ियों की छाया थी—
दादा अमीर हुसैन,
पिता सलीम,
वो खुद यूसुफ,
और उसका दस साल का बेटा आरिफ।
यह कहानी उन्हीं चार पीढ़ियों, मऊ के बदलते दौर, और समय की आंधियों में टिके रहने की कहानी है।
1. मऊ की सुबह – करघों की लय, इत्र की महक, और उम्मीदों की रोशनी
सुबह की पहली अज़ान के साथ ही मऊ शहर में करघों की आवाज़ गूंज जाती थी।
“ठक-ठक,
ठक-ठक...”
यह आवाज़ शहर की धड़कन जैसी थी।
यूसुफ भी रोज़ इसी आवाज़ से जागता।
उसका घर भी किसी दूसरे बुनकरों के घर जैसा ही था—नीचे
करघा,
ऊपर छोटा कमरा,
छत पर कपड़ों की कतारें।
दादा अमीर हुसैन का कहना था—
“मऊ की मिट्टी में हुनर खुदा की नेमत है। यहाँ करघे सिर्फ कपड़ा नहीं बुनते,
किस्मत भी बुनते हैं।”
मऊ कभी छोटे कस्बे जैसा लगता था,
मगर उसकी पहचान बहुत बड़ी थी—
एक तरफ़ बुनकर उद्योग,
दूसरी तरफ़ साहित्य और संगीत का स्वर्ग,
तीसरी तरफ़ धार्मिक विविधता,
और चौथी तरफ़ आर्थिक संघर्ष।
यहाँ की गालियाँ संकरी अवश्य थीं, पर दिल के रास्ते बहुत बड़े।
2. अमीर हुसैन की शुरुआत – आज़ादी के दौर की मऊ
दादा अमीर हुसैन, 90 साल के थे, लेकिन उनकी याददाश्त अब भी नाज़ुक धागे की तरह मजबूत थी।
वह अक्सर कहते—
“बेटा यूसुफ, जब मैं जवान था, तब मऊ में बिजली नहीं थी। करघे हाथों से चलते थे। पर हमारे बुने हुए कपड़े कोलकाता, दिल्ली, लखनऊ तक जाते थे। अंग्रेज भी मऊ का मलमल पसंद करते थे।”
अमीर हुसैन बताते—
कि कैसे 1940 के दशक में मऊ के करघों ने पहचान बनाई,
कैसे मऊ की भीड़भाड़ वाली गलियाँ हमेशा खरीददारों से भरी रहती थीं,
कैसे ईद और दिवाली की रौनक एक साथ मिलकर पूरे शहर को चमका देती थी,
और कैसे हिंदू-मुस्लिम परिवार एक-दूसरे की खुशियों में शरीक होते थे।
“तब मऊ सिर्फ़ शहर नहीं था, एक परिवार था।”
दादा की आँखों में चमक आ जाती थी जब वह पुराना मऊ याद करते।
3. 1980–90 का मऊ – करघा उद्योग का सुनहरा समय
जब यूसुफ के पिता सलीम जवान हुए, तब मऊ में करघों का असली स्वर्णकाल था।
हर घर में करघा
हर गली में बुनकर
हर छत पर सूखते रंग-बिरंगे कपड़े
और बड़े-बड़े व्यापारी जो दूर-दूर से आते थे
सलीम बताते—
“उस वक्त 8–8 करघे घर में चलते थे। रातें भी रोशनी से भरी रहती थीं। आवाज़ इतनी होती कि कान सुन्न हो जाएं, लेकिन दिल खुश रहता था।”
मऊ की पहचान देशभर में फैल गई थी—
मऊ की साड़ी,
मऊ की लखनऊ चिकनकारी मिश्रित डिज़ाइन,
मऊ की पावरलूम फैब्रिक,
मऊ के कढ़ाईदार दुपट्टे,
और मऊ का इत्र…
सबका अपना अलग स्थान था।
मऊ के लोग कम बोलते थे, पर उनका काम बहुत कुछ कह जाता था।
4. यूसुफ की पीढ़ी – संघर्ष, बदलाव और डिजिटल युग
2000 के बाद का मऊ पूरी तरह बदल गया।
सड़कें बढ़ीं,
बाजार बढ़े,
पर मुश्किलें भी बढ़ीं।
■ बिजली की कटौती
करघा रुकता तो काम रुकता।
सलीम की कमाई आधी रह गई।
■ सस्ता मशीन फैब्रिक
बड़े शहरों में आने वाले पावरलूम ने हाथकरघा को नुकसान पहुँचाया।
■ पैसे की तंगी
कई बुनकर कर्ज में डूब गए।
यूसुफ भी इन्हीं मुश्किलों के बीच बड़ा हुआ था।
उसने अपने पिता की मेहनत देखी थी,
और दादा के सुनहरे किस्से सुने थे।
एक दिन यूसुफ ने पिता से कहा—
“अब्बा, हमें
बदलना पड़ेगा।
हम भी पावरलूम लगाएंगे।
डिज़ाइन ऑनलाइन बेचेंगे।”
सलीम ने कहा—
“बेटा, हुनर
तो हाथ में है,
पर बाजार दिमाग में चाहिए। तुम पढ़े-लिखे हो,
कोशिश करो।”
इसके बाद मऊ के एक छोटे से कमरे में—
यूसुफ ने मोबाइल से कपड़े की तस्वीरें खींच-खींचकर सोशल मीडिया पर डालना शुरू किया।
धीरे-धीरे उसका काम बढ़ने लगा।
लखनऊ, दिल्ली, राजस्थान से ऑर्डर आने लगे।
मऊ के कई बुनकरों ने उससे सीखना शुरू किया।
एक नई उम्मीद जागी।
5. मऊ का संतुलन – मस्जिदें, मंदिर, और तहज़ीब का शहर
मऊ एक अनोखी जगह है—
जहाँ सतमस्जिद की अज़ान और हनुमान मंदिर की घंटी साथ सुनाई देती है।
जहाँ देवचंद कॉलेज, मऊ नगर पालिका, शहीद पार्क जैसी जगहों पर हर धर्म के लोग मिलते हैं।
जहाँ दशहरा और ईद पर लोग एक-दूसरे के घर खाने जाते हैं।
यूसुफ अपने बेटे आरिफ को रोज़ यही सिखाता—
“बेटा, मऊ सिर्फ़ ताना-बाना का शहर नहीं… यह मोहब्बत का शहर है।”
आरिफ पूछता—
“अब्बू, क्या
मऊ इतना खास है?”
यूसुफ मुस्कुराकर कहता—
“हाँ बेटा,
बहुत खास है…
यहाँ के लोग दिल से काम करते हैं।”
6. बाढ़, महामारी और मऊ की हिम्मत
फिर आया 2020 का महामारी का दौर।
बाजार बंद…
करघे बंद…
सड़कें सूनी…
घर में खाने का संकट…
मऊ के बुनकरों की हालत बहुत खराब हो गई।
लेकिन इस मुश्किल समय में—
कई हिंदू परिवारों ने मुस्लिम बुनकरों को राशन पहुँचाया
कई मुस्लिम परिवारों ने दूसरे समुदाय को मदद की
युवाओं ने NGO मिलकर लोगों तक खाना पहुँचाया
मऊ ने दुनिया को दिखाया कि
“तहज़ीब सिर्फ़ किताबों में नहीं,
लोगों के दिल में होती है।”
यूसुफ के घर में भी संघर्ष था।
लेकिन उसने डिजिटल ऑर्डरिंग से काम चालू रखा।
धीरे-धीरे फिर से ऑर्डर आने लगे।
7. चार पीढ़ियाँ, एक करघा – मऊ की पहचान
एक दिन दादा अमीर हुसैन बहुत खुश थे।
उन्होंने आरिफ को अपने पास बुलाया और बोले—
“बेटा, हम चार पीढ़ियाँ हैं—
हमने मऊ को जिया है,
उसका दर्द देखा है,
उसकी खुशियाँ भी।”
उनकी आँखों में पानी था।
“मेरे हाथों का हुनर तेरे अब्बा और दादा के हाथ में गया…
अब तुझे भी सीखना होगा।”
आरिफ बोला—
“पर दादू,
मैं तो कंप्यूटर सीख रहा हूँ!”
दादा मुस्कुराए—
“अरे वही तो चाहिए!
तुम करघे को दुनिया तक पहुँचाओ…
उन सभी तक जो मऊ को जानना चाहते हैं।”
यूसुफ गर्व से बेटे को देख रहा था।
8. मऊ का नया भविष्य – करघा + तकनीक
अब मऊ बदल चुका था—
ऑनलाइन मार्केट
ट्रेडिशनल बुनाई
आधुनिक डिज़ाइन पैटर्न
नए युवा उद्यमी
महिला सेल्फ-हेल्प ग्रुप
सरकारी योजनाएँ
मऊ के कपड़े अब सिर्फ़ बाजार तक नहीं,
बल्कि
दुबई, कतर, सऊदी, यूके
और कनाडा तक जा रहे थे।
यूसुफ अब सिर्फ़ बुनकर नहीं रहा,
वह “मऊ की नई पहचान”
बन चुका था।
9. एक बड़ी घटना – मऊ का सम्मान
मऊ में एक राज्य स्तरीय कार्यक्रम रखा गया—
“उत्तर प्रदेश बुनकर गौरव दिवस”
इसमें यूसुफ को सम्मानित किया गया—
“मऊ का आधुनिक बुनकर”
जिसने परंपरा को तकनीक से जोड़ दिया।
स्टेज पर खड़े यूसुफ की आँखों में आँसू थे।
उसे लगा—
उसका संघर्ष,
उसके परिवार का संघर्ष,
और मऊ की मिट्टी का हुनर…
आज दुनिया के सामने चमक रहा है।
दादा ने गर्व से कहा—
“आज मुझे यकीन हो गया…
मऊ की रूह अब भी जिंदा है।”
10. कहानी का अंतिम भाव – मऊ सिर्फ़ धागा नहीं, दास्तान है




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